बी ए - एम ए >> फास्टर नोट्स-2018 बी. ए. प्रथम वर्ष शिक्षाशास्त्र प्रथम प्रश्नपत्र फास्टर नोट्स-2018 बी. ए. प्रथम वर्ष शिक्षाशास्त्र प्रथम प्रश्नपत्रयूनिवर्सिटी फास्टर नोट्स
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बी. ए. प्रथम वर्ष (सेमेस्टर-1) शिक्षाशास्त्र के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार हिन्दी माध्यम में सहायक-प्रश्नोत्तर
प्रश्न- शिक्षा के समाजशास्त्रीय सम्प्रत्यय की विवेचना कीजिए।
उत्तर-
शिक्षा का समाजशास्त्रीय सम्प्रत्यय
समाजशास्त्रियों का विचार केन्द्र समाज होता है। ये व्यष्टि को उसके समाज के सन्दर्भ एवं परिप्रेक्ष्य में ही देखते-समझते हैं। शिक्षा को ये व्यष्टि और समाज के विकास का साधन मानते हैं इन्होंने शिक्षा प्रक्रिया की प्रकृति के विषय में निम्नलिखित तथ्य उजागर किये हैं -
1. शिक्षा सामाजिक प्रक्रिया है समाजशास्त्रियों ने स्पष्ट किया कि जब दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच सामाजिक अन्तक्रिया होती है तो वे एक-दूसरे की भाषा, विचार और आचरण से प्रभावित होते हैं। इस प्रभावित होने की प्रक्रिया को सीखना कहते हैं और जब यह कार्य निश्चित कुछ उद्देश्यों को सामने रखकर किया जाता है तो उसे शिक्षा कहते हैं। हम जानते हैं कि मनुष्य कुछ शक्तियाँ लेकर पैदा होता है, प्राकृतिक और सामाजिक पर्यावरण में उसकी इन शक्तियों का विकास होता है और इसके परिणामस्वरूप ही मनुष्य के व्यवहार में परिवर्तन होता है। उदाहरण के लिए ध्वनियों को उच्चारित करने का तन्त्र मनुष्य को जन्म से प्राप्त होता है, परन्तु इस तन्त्र से भाषा को वह (बालक) उन्हीं लोगों से सीखता है जिनके सम्पर्क में आता है और जिनसे विचारों का आदान-प्रदान करता है। मनुष्य की पूरी सभ्यता एवं संस्कृति का विकास सामाजिक प्रक्रिया का ही परिणाम है। हाँ, यह बात अवश्य है कि कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों के विकास और भाषा ज्ञान होने के बाद मनुष्य स्वतन्त्र रूप से भी अवलोकन, परीक्षण, चिन्तन और मनन करता है और इस प्रकार भी सीखता है, परन्तु इसके लिए आवश्यक कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों का विकास, भाषा, ज्ञान एवं विचार शक्ति का विकास सामाजिक पर्यावरण में ही होता है। समाज के अभाव में न तो हम भाषा सीख सकते हैं और न विचार करना। बच्चे अपने चारों ओर की वस्तुओं, भाषा और क्रियाओं का ज्ञान समाज में रहकर ही प्राप्त करते हैं।
2. शिक्षा अविरत प्रक्रिया है - शिक्षा के विषय में समाजशास्त्रियों ने दूसरा तथ्य यह उजागर किया कि शिक्षा समाज में सदैव चलती है। मनुष्य के जन्म के कुछ दिन बाद से ही उसकी शिक्षा प्रारम्भ हो जाती है और जीवन के अन्त तक चलती रहती है और अधिक विस्तृत दृष्टिकोण से देखें तो समाज के सदस्य (व्यक्ति) तो समाप्त होते रहते हैं परन्तु उनकी शिक्षा प्रक्रिया पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है, वह कभी विश्राम नहीं लेती। इस प्रकार निरन्तरता उसका दूसरा लक्षण है।
3. शिक्षा द्विध्रुवीय (द्विमुखी) प्रक्रिया है - समाजशास्त्रियों ने स्पष्ट किया है कि शिक्षा की प्रक्रिया में एक पक्ष प्रभावित करता है और दूसरा पक्ष प्रभावित होता है। अतः स्पष्ट है कि शिक्षा द्विध्रुवीय प्रक्रिया है। उनके अनुसार शिक्षा के दो ध्रुव होते हैं- एक वह जो प्रभावित करता है (शिक्षक) और दूसरा वह जो प्रभावित होता है (शिक्षार्थी)। अमरीकी शिक्षाशास्त्री जॉन डीवी ने भी शिक्षा के दो ध्रुव माने हैं - एक मनोवैज्ञानिक और दूसरा सामाजिक। मनोवैज्ञानिक अंग से उनका तात्पर्य सीखने वाले की रुचि, रुझान और शक्ति से है और सामाजिक अंग से उनका तात्पर्य उसके सामाजिक पर्यावरण से है। परन्तु अपना तो यह अनुभव है कि केवल सामाजिक पर्यावरण ही नहीं, अपितु प्राकृतिक पर्यावरण भी सीखने-सिखाने की क्रिया को प्रभावित करता है। नियोजित शिक्षा के सन्दर्भ में शिक्षक, शिक्षण के उद्देश्य, पाठ्यचर्या और शिक्षण विधियाँ भी प्रभावी तत्व होते हैं। इन सबको हम सीखने-सिखाने की परिस्थितियाँ कहते हैं। तब यह कहना अधिक लययुक्त होगा कि शिक्षा की प्रक्रिया सीखने वाले और सीखने-सिखाने की परिस्थितियों के बीच चलती है।
4. शिक्षा विकास की प्रक्रिया है -मनुष्य का जन्मजात व्यवहार पशुवत् होता है। शिक्षा के द्वारा उसके इस व्यवहार में परिवर्तन एवं परिमार्जन किया जाता है और अधिक विस्तृत दृष्टिकोण से देखें तो मनुष्य अपने अनुभवों को भाषा के माध्यम से सुरक्षित रखता है और उनको आने वाली पीढ़ी के हाथों सौंप देता है। आने वाली पीढ़ी इस ज्ञान के आधार पर और आगे बढ़ती है और इसमें अपने अनुभव और विचार जोड़ देती है। इस तरह वह किसी समाज की सभ्यता एवं संस्कृति का विकास करता है। शिक्षा के अभाव में यह सम्भव नहीं। इससे यह स्पष्ट होता है कि शिक्षा विकास की प्रक्रिया है।
5. शिक्षा गतिशील प्रक्रिया है - शिक्षा के द्वारा मनुष्य अपनी सभ्यता एवं संस्कृति में निरन्तर विकास करता है। इस विकास के लिए उसकी एक पीढ़ी अपने ज्ञान एवं कला-कौशल आदि को दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित करती है। इस हस्तान्तरण के लिए प्रत्येक समाज विद्यालयी शिक्षा का नियोजन करता है। इसीलिए समय विशेष की विद्यालयी शिक्षा के उद्देश्य पाठ्यचर्या और शिक्षण विधियाँ सब निश्चित प्रायः होते हैं। परन्तु जैसे-जैसे समाज में परिवर्तन होते हैं वैसे-वैसे शिक्षा उन परिवर्तनों को स्वीकार करती हुई आगे बढ़ती है। इस प्रकार उसके उद्देश्य पाठ्यचर्या और शिक्षण विधियों में आवश्यकतानुसार परिवर्तन होता रहता है। यही उसकी गतिशीलता है। यदि शिक्षा गतिशील न होती तो हम विकास पथ पर अग्रसर नहीं रह पाते।
कुछ शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा को उपरोक्त तथ्यों के आधार पर ही परिभाषित किया है। भारतीय कुछ विचारक भैरवनाथ झां के शब्दों में - “शिक्षा एक प्रक्रिया है और एक सामाजिक कार्य है जो कोई समाज अपने हित के लिए करता है।'
पाश्चात्य जगत के प्रसिद्ध शिक्षा समाजशास्त्री ओटावे महोदय ने शिक्षा के स्वरूप और कार्य दोनों को समाहित करते हुए शिक्षा को निम्नलिखित शब्दों में परिभाषित किया है - "शिक्षा की सम्पूर्ण प्रक्रिया व्यष्टियों और सामाजिक समूहों के बीच की अन्त क्रिया है जो व्यष्टियों के विकास के लिए कुछ निश्चित उद्देश्यों से की जाती है।'
शिक्षा समाजशास्त्रियों के अनुसार, मनुष्य शिक्षा के द्वारा अपने समाज में अनुकूलन करता है।
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